जमनाजी से मुड़ते ही

 जमनाजी से मुड़ते ही

अनन्त गौड़ 

    दो नंबर गेट के पास वाले फुट-ओवर ब्रिज पर खड़ा मंजीत आसमान की ओर देख रहा था। पूर्णिमा का पूरा खिला हुआ चांद, जिसकी दूधिया रौशनी चारों तरफ़ हर बिल्डिंग , हर दुकान पर बिखरी जा रही थी। कुछ देर ऊपर देखने के बाद उसने नीचे सड़क की ओर देखा। रात के डेढ़ बजे थे, सो कोई इक्का-दुक्का गाड़ी ही गुज़रती नज़र में आती और दूर कहीं किसी बेघर शराबी के गाने की आवाज़ कानों में। वो पलटा तो उसने देखा की एक कुत्ता उसके बैग पर पेशाब कर रहा है। कुत्ते को लताड़ते हुए मंजीत को एहसास हुआ की वो एक नंबर का झंडू है। कोई नहीं आने वाला, और अगर गलती से उसके दोस्त उसे ढूंढ भी रहें हों, तो भी लक्ष्मी नगर के इस फ़िज़ूल पुल पर तो कोई नहीं आने वाला। आजतक तो कोई नहीं आया। 

कुछ देर और इंतज़ार कर, फिर हारकर, मंजीत ने अपने दोनों बैग्स उठाए और वापस अपने फ़्लैट की तरफ़ बढ़ गया। लक्ष्मी नगर, स्कूल ब्लॉक।

कचरे के ढेरों से बचते बचाते, अपने बैग्स घसीटता हुआ, मंजीत फ़्लैट पर पहुंचा और दरवाज़े पर एक नपी तुली सी दस्तक दी। इतनी की किसी को सुनाई ना दे। लेकिन बिना एक पल की भी देरी के, दस्तक होते ही राघव ने दरवाज़ा खोल दिया, मानो वो इसी इंतज़ार में बैठा था।

दरवाज़ा खोल कर एक ज़हर भरी मुस्कान के साथ राघव बोला "आइए आइए... अरे डेविड... देखो कौन आया है"। अंदर आने पर मंजीत बैग्स अलमारी में डालकर, बीन-बैग पर बैठा ही था कि डेविड उर्फ़ शौकत अली, किचन से कुछ प्याले लेकर आया और एक प्याला मंजीत की तरफ़ बढ़ाते हुए बोला "देखो मंजू भईया, मैंने चाय बनाई और तुम आ गए। समझ रहे हो, कित्ता प्यार है हममें... ये होता है प्यार"। डेविड मुस्कुराते हुए मंजीत की तरफ़ हाथ बढ़ाए था और मंजीत ज्वालामुखी मन में लिए, दांत भीचता हुआ उसके सामने बैठा था। इस बीच राघव, चुपके से अपने लैपटॉप की स्क्रीन से ऊपर झांकता हुआ, इस नजारे का लुत्फ़ उठा रहा था। कुछ पल के सन्नाटे के बाद, मंजीत ने कोई बहुत भद्दी सी गाली बकते हुए, डेविड के इस मज़ाक पर अपनी प्रतिक्रिया दी और चाय उसके हाथ से ले ली। जिसपर तीनों ज़ोर से हसकर बातों में लग गए।

    दो महीने पहले जब राघव इस मकान में शिफ़्ट हुआ था तभी से तीनों में शर्त लगी थी कि कौन पहले इस फ़्लैट से जाएगा। राघव का कहना ये था की किसी भी हाल में ये 11 महीने का कॉन्ट्रैक्ट ख़त्म होने से पहले, तीनों में से कोई एक तो इस फ़्लैट को छोड़कर जाएगा ही। राघव बाली; एस०बी०आई० की लक्ष्मी नगर ब्रांच में एंप्लॉयी था। एक टीपिकल बैंक क्लर्क, सुबह जाना और शाम को आना। फिर अगर हिम्मत बची तो दोस्तों के साथ शाम में थोड़ा घूम लेना और वीकेंड्स पर कभी कभार ड्रिंक्स पर चले जाना। वरना रात में डिनर कर के चुप चाप सो जाना और फिर सुबह जल्दी उठकर वही "वर्क- ईट- स्लीप" की साईकिल रिपीट करते रहना। यू०पी०, मेरठ में जहां उसका घर था वहां भी उसने ऐसा ही सरल जीवन जिया था। घर से दूर दिल्ली में नौकरी लगने पर वो खुश तो हुआ था कि अब वो एक नई तरह की ज़िंदगी जी पाएगा पर यहां आकर भी राघव नौकरी और बड़े शहर के जंजाल में फस कर रह गया। उसे अपना आने वाला वक़्त साफ दिखाई दे रहा था। मम्मी पापा उसके लिए लड़की देख रहे थे, जिससे उसे कोई परेशानी नहीं थी। दो एक साल में वो उसकी शादी करा देंगे, फिर बीवी, फिर बच्चे, फिर बस। उससे पहले वो थोड़ा जीना चाहता था और ये वो मंजीत और डेविड के ज़रिए कर रहा था। ये दोनों जैसे उसकी आख़िरी उम्मीद थे। राघव सरल लड़का था। शर्मिला बुद्धिमान फिर भी नादान, ढाक का पहला पत्ता... 

    हुआ यूं कि कल दोपहर में सामने वाले पी०जी० कोई लड़की अपने अंडरगार्मेंट्स बालकनी में सुखा रही थी, तभी महाशय राघव बाहर निकले और ये देख घबरा कर वापस अंदर घुस गए। संजोग से कुछ ही देर बाद महाबली मंजीत जी सिगरेट पीने बालकनी में आए। 3- 4 ही कश लिए होंगे कि  वो भी एकदम से हड़बड़ाता हुआ अंदर आया और गाली देता हुआ बीन- बैग पर बैठ गया। डेविड और राघव ने सवाल भरी निगाह से उसे देखा तो मंजीत ने बताया की "अबे ये सामने पी०जी० वाली लड़की आंख मार रही थी बे"।

"हैं !!" राघव ने झल्ला कर कहा, "वो तो बेचारी अपनी ब्रा वगहरा सुखा रही थी, मैं इसलिए अंदर आ गया"

"भाई सीरियसली"

"ऐसे कैसे यार... तुझे लगा होगा शायद"

"अरे साफ़ देखा है यार एकदम, आई कॉन्टैक्ट हुआ है"

"यार स्टूडेंट वगहरा रहती हैं यहां, ऐसे थोड़ी करेंगी"

"भाई मैं झूठ थोड़ी बोलूंगा"

"फिर भी यार"

राघव और मंजीत के बीच इस फ़िज़ूल बहस के चलते, डेविड प्याज़ काटते हुए, आंखों में आंसू भरे, नाक सुड़कते हुए अचानक बोला "जुगाड़ होगी भाई"। राघव और मंजीत एकसाथ डेविड की तरफ़ मुड़े और कुछ पल यूं ही सन्नाटा बना रहा। फिर मंजीत के "क्या बोल रहा है भाई!" पूछने पर डेविड ने बताया कि लक्ष्मी नगर का कुछ हिस्सा रेड लाइट एरिया भी है। दूसरे शहरों से जो स्टूडेंट्स वगहरा या जॉब के लिए जो लोग यहां आते हैं, उन्हें पैसों के साथ और भी बहुत सारी चीजों की ज़रूरत पड़ती है, तो इन्हीं पी०जी० वगहरा में काफ़ी जगह जुगाड़ हो जाता है। बस पता होना चाहिए कि सर्विस कहां मिलती है और सर्विस प्रोवाइडर कौन है। राघव ने " अबे नहीं यार" बोला, तो डेविड ने उन्हें भरोसा दिलाते हुए बताया कि "तुम्हारी जान कसम भईया, कितनी बार तो मैं खुद गया हूं। मुझे पता हैं बहुत सारे तो"। राघव ने ना में सिर हिलाते हुए बोला कि " स्टूडेंट्स एरिया में थोड़े ही ऐसा होगा"। तब डेविड ने उसे समझाया कि अंधेरी रातों में, दिया हाथों में लिए... खूब चटाई बिछाई जाती है यहां। डेविड की कद-काठी और मूंछ में निकले रोंए देख कर मंजीत ने उसे बहन की गाली देते हुए कहा " चल साले पागल बनाता है"। जिसपर तुरंत आहत होते हुए हाथ में लिए चाकू की कसम खाते हुए डेविड बोला "चलो फिर लग गई शर्त, आज ही शाम को आपको ले चलूंगा", और फिर आंसू पोंछता हुआ प्याज़ की प्लेट उठाकर वो किचन में चला गया।

डेविड उर्फ़ शौकत अली; बिहार के एक छोटे से ज़िले से दिल्ली आया था, या कहें भेजा गया था। उसके साथ वही हुआ था जो हर छोटे- बड़े शहर के, हर दूसरे- तीसरे लड़के के साथ होता है। वो प्यार में हार गया था। गांव में ही दूसरे धर्म की, ऊपर से छोटी जात की एक लड़की से उसका इश्क़ हो गया था। अब प्यार हो तो गया था पर प्यार होता क्या है ये समझने की उसकी उम्र नहीं थी। घरवालों को पता चला तो मार कुटाई हुई। गांव देहात में इन बातों को हवा भी बहुत जल्दी मिल जाती है। परिवारों में झगड़ा भड़का और इनका मिलना जुलना रुक गया। उम्र औकात शरीर और समझ तो थी नहीं... तो भाई ने ऐसा ही एक चाकू उठाया और अपनी कलाई पर मस्त सा एक क्यू०आर० कोड बना डाला। ऐसे 90% मामलों में लड़कियां अपने घरवालों का ही साथ देती हैं, ख़ासकर जब सामने ऐसा बेवकूफ़ कोई गधा हो तो। सो वही हुआ, लड़की ने अपना पल्ला झाड़ा और हमारा दिलवाला दिलजला बन गया और तब ही से लड़कियों को कुछ ख़ास पसंद नहीं करता। ऐसा भी सुनने में आया है की जनाब लड़की के भाई का सिर फोड़ आए थे, तो घरवालों ने उसे दिल्ली भगा दिया। नतीजतन मियां साब की पढ़ाई लिखाई सब छूट गई। आता जाता कुछ है नहीं, 3 सालों से दिल्ली में पड़े हैं। बस इीलिए दौरान खाना बनाना सीख लिया है। सोचता है कभी पैसे होंगे तो अपना ख़ुद का एक कैफ़े खोलेगा। पर फ़िलहाल कुछ पैसे घरवाले भेज देते हैं, बाक़ी  कैफ़े  रेस्टुरेंट में काम कर के साहब गुज़ारा करते हैं। साथ ही ब्रोकर, इलेक्ट्रीशियन, पर्चे बाटना, फ़िल्म पायरेसी, हवाबाजी... पैसों का को काम मिले वो सब कर लेते हैं। इस फ़्लैट पर रहते हुए ही 2 साल हो गए, जिस दौरान 5-6 लोग आकर जा चुके हैं पर ये टिके हुए हैं। मकान-मालिक को भी फ़र्क नहीं पड़ता... लड़का छोटा है तो नए लोगों को एडजस्ट कराने में, रुल रेगुलेशन समझाने में आसानी हो जाती है। साथ ही अपनी हैसियत का अंदाज़ा होने की वजह से किसी का कोई भी काम करने से डेविड नहीं हिचकिचाता। किराए भाड़े में देर सवेर हो तो थोड़ी मदद मिल जाती है।  ये दुनियादारी डेविड ने कम उम्र में ही सीख ली थी। लड़का जितना छोटा है, हरामी भी उतना ही है। मसखरा प्यारा, मजबूर बेचारा, फिर भी तेज़ तर्रार चाकू के जैसा। ढाक का दूसरा पत्ता...

जैसे ही मिनट का कांटा सरक कर 12 पर आया डेविड उठा और बाक़ी दोनों से बोला " चलो मंजू भईया 8 बज गए... अब ओफिसली इस काम का टाइम चालू हो गया है। अब मैं आपको यहां की असली हकीकत दिखा के लाता हूं। हो सकता है इसी बहाने आपका तोता ही गीला हो जाए"। राघव एक शर्मीली सी हसी मुस्कुरा दिया। मंजीत बोला "कोई तोता वोता गीला नहीं होगा। अगर तेरी बात सच निकली तो मैं ऐसी जगह नहीं रहने वाला"। डेविड निगाह बचा कर राघव की तरफ़ देख मुस्कुराया और तीनों निकल पड़े, अंधेरी रातों में... सुनसान राहों पर।

पैदल चलते चलते 20 मिनट हो चुके थे, जिस बीच डेविड ने 2 जगह स्टॉप्स लिए थे। दोनों जगह वो ऊपर गया, फिर नीचे आया, फिर बोला "आगे जाना होगा"। थोड़ी सी दूर और चलकर मंजीत ने सिगरेट जलाई, तब तक वो लोग एक संकरी सी गली में, काफ़ी सारे पी०जी०‘यों के बीच खड़े थे। 

"लो भईया अपनी मंज़िल, ख़ुद जाके टैस्ट कर लो", डेविड ने कहा "पर हां याद रखना, हर कोई यहां ऐसे काम नहीं करता और जो कुछ करते हैं वो भी सीज़नल"।

मंजीत ने पूछा "तो हमें कैसे पता चलेगा?"

"अरे आप बस जाओ, बैल मारो, लड़की नीचे आएगी, आप बस ये पूछना... कितना?"

"क्या?"

"कितना?"

"क्या चीज़?"

"अरे आप बस पूछना, तो वो ख़ुद बता देगी ना?"

"पर क्या चीज़? है क्या ये?"

"अरे पैसे पैसे... इससे आगे तो बात ही नहीं होगी"

"हम्म... अच्छा अच्छा"

"आगे का सिस्टम आप ऊपर ख़ुद देख लेना, मन हो तो...", डेविड ने मंजीत को छेड़ते हुए कहा।

बाद में डेविड ने मंजीत को सामने वाली गली के पी०जी० पर भेज दिया और मंजीत को पीछे वाले मकान की बैल बजाने को कहा... पर राघव इन सब चीजों को लेकर इतना डरपोक था कि  आख़िर में हारकर डेविड को भी राघव के साथ जाना पड़ा। दो बार बैल बजाने की नाकाम कोशिश के डेविड को ख़ुद बैल बजाई और राघव को कहा कि उसके साथ ही चुपचाप खड़ा रहे बस। लूज़ सी टी-शर्ट और कैप्री पहने एक लड़की हवाई चप्पलों में पटर पटर करती नीचे आई तो डेविड ने धीरे से आगे बढ़ कर उससे पूछा "कितना?", जिसपर उस लड़की बड़ी सफ़ाई से, पहले चारों तरफ़, फ़िर डेविड को और फ़िर आख़िर में सवालिया निगाहों से राघव को देखा। डेविड ने भी राघव की तरफ़ मुड़कर देखा और फ़िर पलट कर दोबारा पूछा "दोनों हैं... कितना?"

राघव के लिए इतना ही सुबूत काफ़ी था। वहीं दूसरी तरफ़ कई दफे बैल बजाने के बाद, ऐसे ही लिबास ने एक लड़की नीचे आई, जिसने आते ही पर्स निकाला और मंजीत के बोलने से पहले ही ख़ुद उससे पूछ लिया "कितना?"। मजीत ये सुनकर कुछ देर भौंचक्का सा रह गया, फिर उसे लगा कि शायद वो भी कोड ही बोल रही है, तो उसने भी पूछ डाला "कितना?"

"हां कितना?" लड़की ने फिर पूछा

"वो तो आप बताओगी ना"

"क्या बताऊंगी?"

"की... कितना"

"मैं कैसे बताऊंगी? ये तो आप बताओगे ना, ऑर्डर तो आप लाए हो ना"

"पर सर्विस तो आप देते हो ना"

"नहीं हमने तो ऑर्डर दिया है, सर्विस तो आप देते हो"

"अरे यार... मैडम कुछ कन्फ्यूजन हुआ है"

"हां... आपको भी नहीं पता, रुको मैं ऊपर पूछ लेती हूं। दीदी... कितना..."

"एक मिनट... मतलब आप लोग और भी हैं?"

"हां पूरी बिल्डिंग है ये... पूरा पी०जी०"

"मतलब आप सब यही हो?"

"क्या?"

"जुगाड़"

"दीदी...", मंजीत को एक ज़ोरदार तमाचा जड़ते हुए वो लड़की इतना ज़ोर से चिल्लाई कि मंजीत के परखच्चे उड़ गए। जान बचा कर वो ऐसा भागा कि रुका तो सीधा अपना फ़्लैट पर जाकर। इस तरफ़ डेविड और राघव को "कितना" का जवाब मिल गया था। पर जैसे ही लड़की उन्हें लेकर सीढियों से ऊपर जाने लगी... राघव घबरा कर "नहीं-नहीं" करने लगा... तो लड़की को ऊपर भेज पीछे से कुण्डी मार, वो दोनों भी वहां से  फ़रार हो लिए।

अब चाबी राघव की जेब में थी... तो मंजीत फ़्लैट के बाहर ही सिगरेट फूंकता हुआ मिला। दोनों के लौटते है उसने डेविड को एक बहुत मोटी सी बायोलॉजिकल गाली बकते हुए सारा क़िस्सा दोहराया, कि कैसे आातशत्रु जान पर बन आई थी। अगर वहां से बच कर निकल ना भागता, तो पूरे महौल्ले से मार खानी पड़ती सो अलग, जेल जाने की भी नौबत आ सकती थी। सारी गलतफहमी को समझते सुलझाते हुए डेविड और राघव हस-हसकर खूब लोटपोट हुए, पर मंजीत मानने को तैयार नहीं था कि डेविड की बात सच है। वो तो जब राघव ने हांमी भरी और उनका वाला पहलू बताया तब जाकर उसे यकीन हुआ।

दरअसल जीवन बहुत बोरिंग था और डेविड बहुत हरामखोर। यही सब हरकतें ही तो थीं जो इं तीनों के जीवन में कुछ रस, कुछ गॉसिप भरती थीं। तो बिना मौक़ा गवाए डेविड ने तपाक से मंजीत को बोल डाला "मंजू भईया मेरी बात तो सच निकल गई। अब तो तुम एक मिनट भी यहां नहीं रुकोगे, है ना... तुमने ही कहा था" , बोलकर वो तुरंत हड़ने हसने लगा और मंजीत को शाम का पूरा फ्लैशबैक दिखाई दे गया। अब चुटकुला इतना अच्छा था कि बेचारा राघव भी कैसे हसी कंट्रोल करता। बस यही बात मंजीत के ईगो पे लग गई। वो बहुत स्मार्टली इस बात को बहुत देर से भटकाने की कोशिश कर रहा था पर डेविड उससे चार कदम आगे था। मंजीत की इसी गुस्सैल प्रवृत्ति का बाक़ी दोनों मज़ा लेते थे। उसे छेड़ने में उन्हें कुछ अलग ही सुकून मिलता था। ख़ैर अब कह दिया था तो ज़ुबान से पलटना बेइज्ज़ती वाली बात हो जाती, सो तैश में आकर मंजीत भाईसाब ने मर-मरकर, धीरे धीरे अपना सामान पैक कर तो लिया, इस इंतजार में कि चल साले ये दोनों मना ही कर दें... पर नहीं, मजाल है जो दोनों ने चुंकार भी काटी हो। दरअसल वो दोनों जानते थे कि हर बार की तरह, कुछ देर में इसे लौट तो आना ही है। आने और जाने के इस बहाने कुछ एक्साइटमेंट ही हो जाएगी। तो जी... मंजीत भाईसाब ने अपने बैग्स बांधे और किसी के भी ना रोकने और साथ ही अपने ही बड़-बोलेपन का शिकार हुए, निकल गए रात में अपना झोला उठाए, कहीं जाने का सोचकर। फिर कुछ देर यहां बैठे, फिर वहां बैठे, फिर एक दोस्त से मिल आए, फिर कुछ खा पीकर पहुंच गए, अपने ख़ास अड्डे पर। वहीं जहां लक्ष्मी नगर की शुरुआत होती है। जमनाजी से मुड़ते ही, वहीं पुल के ऊपर। जहां चांद एकदम पास नज़र आता है। जहां और कोई नहीं आता।

बस याद आती है। ये पुल ही वो ख़ास जगह थी जहां कुछ साल पहले मंजीत अपनी एक ख़ास दोस्त को सुबह 4 बजे लेकर आया था। यहीं पहली बार उसने किसी लड़की से अपनी मोहब्बत का इज़हार किया था। यहीं पहली बार उसने किसी को चूमा था। ये जगह उनकी जगह बन गई थी, जहां और कोई नहीं आता था। बाद में तो ये हुआ कि वो लड़की भी नहीं आती थी... इतने मस्त तरीके से धोखा देकर गई थी वो मंजीत को की तमीज़ से सुनने वाला तो उस लड़की को शाबाशी भी दे दे। काफ़ी प्रैक्टिस होगी उसको। इस वक़्त के आसपास ही मंजीत ने अपना घर छोड़ कर लक्ष्मी नगर शिफ्ट हो गया था, आशिक़-कम-आर्टिस्ट की ज़िंदगी जीने के लिए। इस टाइम ही उसने 3-4 बार रॉकस्टार भी देख ली थी।

मंजीत मनचंदा उर्फ़ मंजू; वैसे तो इंजीनियरिंग ग्रेजुएट था,  ऊपर से रहने वाला भी दिल्ली, उत्तम नगर का ही था पर उस बेचारे को लगन लग गई थी। एक दिन नौकरी छोड़ कर मंडी हाउस आ पहुंचा। कई बरस पहले कॉलेज फैस्ट में किसी दोस्त ने एड-मैड एक्टिंग के इवेंट में उसका नाम लिखवा दिया था, वहां वो जीत गया। तब से उसे कुछ इल्हाम हो गया था। फिर उसने मोटिवेट और ब्रेन-वॉश करने वाली खूब सारी फिल्में भी देख ली थीं। थियेटर परफॉर्मिंग क्रिएटिंग मूवीज़ वही टिपिकल कहानी। उसे अच्छा लगता था इस काम में, कोई एक नई दुनिया बनाने का आभास होता था। हालांकि वो इस काम में बहुत अच्छा नहीं था। बिना इस बारे में पढ़े लिखे , बिना किसी टैलेंट के, बस आ गया एक दिन। आज दो साल हो गए उसे थिएटर करते। अब सोच रहा है कि अपना कुछ बनाए, कोई शॉर्ट फ़िल्म वगहरा। इसी फ़्लैट में पहले मंजीत का एक थियेटर वाला दोस्त रहता था, तो मंजीत का आना जाना भी लगा ही रहता था। उसके थ्रू ही वो डेविड से मिला था। घर छोड़ते वक़्त, पहले कुछ दिन मंजीत यहीं उस दोस्त के पास रुका था। वो दोस्त अब बॉम्बे चला गया था, तो मंजीत यहीं शिफ्ट हो गया अपने घर पर ना रहने की एक वजह ये भी थी कि वो लोग ना तो मंजीत को समझते थे ना ही उसको इस काम में सपोर्ट करते थे। वो बस चाहते थे कि मंजीत नॉर्मल लोगों की तरह 9 से 5 नौकरी करे, पैसे कमाए, घर आए, शादी करे, बच्चे करे और फिर से सुबह उठकर ऑफिस चला जाए। उसे उनकी बातें चुभती थीं। वो इस काम को गन्दा और उसे छोटा महसूस कराते। अजीब सी बात है पर घर पे उसे सही माहौल नहीं मिल पाता था। पर सबसे बड़ी दिक्कत ये थी की उसे वहां सांस नहीं आती थी, वो चिड़चिड़ा होता जा रहा था, जो कि वो अभी भी है। इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं था कि उसके घरवाले बुरे थे य वो उनसे प्यार नहीं करता था। बस वो खुदको मौक़ा देना चाहता था। पर मुस्तकबिल को शायद कुछ और ही मंज़ूर था। मंजीत हसमुख था, गुस्सैल था, गुम भी था पर मन का सच्चा था। ढाक का तीसरा पत्ता...

    6 महीने गुज़र चुके थे इन्हें साथ रहते। एक दिन डेविड  कैफ़े  से थोड़ा लेट वापस आया। वो रो रहा था और उसका गाल भी कुछ सूजा सा हुआ था। पूछने पर उसने बताया कि  कैफ़े  के ओनर ने उसे निकाल दिया। वो डेविड पर दूध की चोरी का इल्जाम लगा रहा था, पूरा हिसाब क्लियर करने के बावजूद भी। सिर्फ़ इस बिनाह पर की एक दिन सामान वेस्ट होने के डर से उसने एक कैपुचिनो ओनर के सामने ही बना के पी ली थी। तब से वो डेविड के पीछे पड़ा था। आज डेविड ने जवाब दे दिया तो हाथापाई हो गई और बेचारे को जो डर था वही हुआ। डेविड निराश तो था ही पर गुस्सा ज़्यादा था। ओनर को खानदान की गाली देते हुए वो कर्राह्या "एक दिन उसकी दुकान के सामने अपनी दुकान खोलूंगा......" और फिर से रोने लगा। मंजीत ये सब सुनकर बहुत गुस्से में था और बदला लेने की ठान चुका था। वो बोलना चाहता था कि डेविड ऐसा बदला लेंगे की सुनने वालों की रूह कांप उठेगी, पर इतने में राघव ऊंची आवाज़ में डेविड को झाड़ने लगा। आज पहली बार राघव ने डेविड को गाली दी "अबे चुप साले... कुछ नहीं खोलेगा तू। ख़ुद को बेवकूफ़ बनाता रह बस। पढ़ाई लिखाई का तुझे खोज नहीं है, साले दसवीं फेल अनपढ़। स्कूल तुझसे पास नहीं हुआ बिजनेस खोलेगा। एक लड़की के चक्कर में लाइफ बरबाद कर ली"। डेविड शर्म से पानी हो गया, उसका रोना भी रुक गया। अब वो हौले हौले सुबक रहा था। कुछ देर बाद राघव फिर बोला "पत्राचार से बारहवीं के फॉर्म भर दे... अपनी पढ़ाई पूरी कर पहले आदमी बनना है तो। ये सब तो साथ में लगा ही रहेगा हमेशा"। ये बोलकर राघव लैटरीन में चला गया और मंजीत चुपचाप बालकनी में खिसक गया। डेविड वहीं बैठा रहा, सुबकता हुआ।

    ढाक के पत्तों का जोड़ा नहीं तिगड़ी होती है। तीनों पत्ते एकसाथ जुड़े होते हैं। कुछ उसी तरह किसी अनदेखी जड़ से ये तीनों भी जुड़े हुए थे। मंजीत ने अपना मन बना लिया था। रात के पौने 2 बजे वो उदास डेविड के पास आया और उसके कान में चुपके से बोला " तू चिंता मत कर, ऐसा बदला लेंगे कि सुनने वालों की रूह कांप उठेगी। तू बस मेरे साथ चल।" मंजीत ने अपना बैग उठाया और बिना आवाज़ किए दोनों चुपचाप फ़्लैट से निकल गए। नीचे जाकर मंजीत ने एकबार फिर अपना बैग चैक किया। उदास डेविड समझ गया था कि मंजीत ने कुछ बहुत ख़तरनाक प्लान किया हुआ है। वो घबरा भी रहा था कि कहीं पुलिस वगहरा का चक्कर ना हो जाए। पहले ही घर से बेघर है, यहां से कहां जाएगा... पर बदला इंसान से कुछ भी करा सकता है। वो दोनों तेज़ी में उस  कैफ़े  की गली में पहुंचे। गाली सुनसान और अंधेरी थी, और उस दुकान का शटर बंद था। दोनों उस शटर के सामने खड़े थे, उदास डेविड ने मंजीत की तरफ़ देखा। मंजीत ने बहुत ही ध्यान से अपने बैग की ज़िप खोली। उदास डेविड बहुत घबराया हुआ था ये सोचकर कि ना जाने बैग में से आख़िर क्या निकले। मंजीत ने बैग से पानी की एक बड़ी बोतल और टॉयलेट पेपर का रोल निकाल कर दुकान के चबूतरे पर रख दिया, फिर दो क़दम पीछे हट कर, उदास डेविड की तरफ़ पलटकर बोला "देखता क्या है, जा... हग डाल साले की दुकान पर"। उदास डेविड की आंखें फटी की फटी रह गईं। वो जानता था कि मंजीत कमीना है पर वो ऐसा खूंखार दरिंदा निकलेगा ये उसने कभी नहीं सोचा था। ऐसा बदला तो कभी किसी ने फिल्मों में भी नहीं लिया था।

ना जाने वो क्या बात थी उस पल में... उदास डेविड बदला ले ही रहा था कि अचानक उसके मन में कुछ आया, वो बदला लेते लेते ही मंजीत से बोला "मंजू भाई कल क्या तुम मेरा बारहवीं का फॉर्म भरवा दोगे?", मंजीत ने बिना कुछ कहे हां में सिर हिला दिया। 10 मिनट के अंदर दोनों लोग बदला ले कर बड़ी शान से फ़्लैट की ओर बढ़ रहे थे तभी मंजीत बोला कि "चल फटाफट चलकर सो जाते हैं, फिर सुबह जल्दी आकर तेरे ओनर को  कैफ़े  खोलते हुए भी तो देखना है, साले की जल के राख हो जाएगी"। उस दिन डेविड कि नज़रों में मंजीत की इज्ज़त बढ़ गई थी।

    उस रात जुगाड़ वाले क़िस्से के बाद राघव ने मंजीत को समझाया कि किसी को घृणा की नज़र से देखना तो ज़्यादा बुरी बात है। कोई काम अच्छा बुरा या छोटा बड़ा नहीं होता... कोई अपना पेट पालने के लिए क्या करता है इससे हमें उन्हें ग़लत नहीं मां लेना चाहिए। ये बात मंजीत के आर्टिस्ट दिल को छू गई थी। वो काफ़ी महीनों से एक लड़की से बात करना चाह रहा था, पर किसी ने बताया कि उसका एम॰एम॰एस॰ बना हुआ है। बताया क्या, बड़े शौक़ से दिखा ही दिया। उस दिन राघव की बातों से मंजीत को एहसास हुआ की एम॰एम॰एस॰ लीक होने में उस लड़की की क्या ग़लती। उसने तो बस सैक्स किया और सैक्स करना तो कोई ग़लती नहीं है। उल्टा वो तो बढ़िया चीज़ है। फिर उसे ये समझ आया कि क्यों वो बेचारी ऐसे अलग-थलग डरी डरी सी घूमती है। सब उस लड़की को इस निगाह से ही देखते होंगे। दुनिया छोड़ो ख़ुद मंजीत ने एक-आध दफे उसे ऐसे ही देखा। कम से कम उस लड़की को तो ऐसा ही लगता होगा। घर से बाहर निकलना मुश्किल होता होगा, नंगा सा महसूस होता होगा।

एक दिन हिम्मत करके मंजीत उस लड़की के पास चला ही गया। उसने पास जाकर हैलो कहा और अपना हाथ आगे बढ़ाया पर वो लड़की इतना ज़ोर से घबरा कर भागी मानों उसने कोई भूत देख लिया हो। शर्मिंदा सा मंजीत नज़र बचाता वहां से निकल चला। बिना किसी ग़लती के भी मंजीत को अपने आप से घिन्न सी आई... उस लड़की पर गुस्सा भी आया। फिर कुछ एक दिन में ये समझ आया कि उसका घबराना और भाग जाना कितना लाज़मी था। इसके बाद मंजीत ने ये कोशिश ही बंद कर दी। अभी के लिए शायद यही सही था।

    अगले 4-5 महीने इधर उधर काम करके डेविड ने काफ़ी पैसे जमा कर लिए थे। उसका ब्रोकर का काम भी कुछ निकल चला था। कमाल कि बात ये हुई की जिस  कैफ़े  से उसे निकाल दिया था उसी के सामने वाली शॉप खाली हो गई थी और किसी भी हालत में डेविड को अपना काम इसी जगह से शुरू करना था। घरवालों को ब्लैकमेल कर के उसने थोड़े पैसे और मंगा लिए थे। मंजीत को साथ के जाकर उसने लैंडलॉर्ड अंकल जी से बात की तो उन्होंने सारा मामला समझाया। इससे पहले इसी शॉप में कोई कपड़ों का काम करता था। वो अंकल जी का 4 महीने का किराया मार के गायब हो गया था, ये बोलकर कि गांव में उसकी छोटी बहन उसके बड़े जीजा के साथ भाग गई है। फिर ना वो आया ना किराया। इंतज़ार कर के एक दिन अंकल जी ने शॉप खुलवाई तो देखा कि शॉप तो सफ़ाचट है, कोई सामान नहीं... यहां तक की नलके तक खोल कर ले गया था वो। अब मुसीबत ये थी कि अंकल जी रिस्क नहीं लेना चाह रहे थे, तो बिना गारंटी के नए लड़कों को दुकान देने में थोड़ा हिचकिचा रहे थे। एक बार को मान भी जाते पर उन्होंने डेविड के बजट के बहुत ही बाहर कि बात कर दी। सिक्योरिटी और 2 महीने का किराया देकर भी,  कैफ़े  में बैठने का, रेनोवेशन का और किचन सैटअप कर के तकरीबन 50,000 रुपए कम पड़ रहे थे। तो अपनी औकात को ना भूलते हुए वो लोग चुपचाप फ़्लैट पर लौट आए।

उस रात राघव को डेविड कुछ उदास सा दिखाई दिया। वो हस रहा था, नाच भी रहा था पर मन के अंदर जो खलिश थी वो राघव साफ़ देख पा रहा था। डेविड के सो जाने के बाद, बालकनी में मंजीत के साथ सिगरेट पीते वक़्त, राघव ने मंजीत से सारा हाले-बयां लिया। सामने वाले पी॰जी॰ की लड़कियां शायद पार्टी कर रहीं थीं, तो उनके शोरो-गुल में कुछ बातें और हो गईं। सिगरेट ख़त्म कर के मंजीत ने अंदर चलने को कहा तो राघव ने " तू चल, मैं ज़रा एक और पीकर आता हूं" में जवाब दिया। मंजीत अंदर गया और जाली वाला दरवाज़ा भेड़ते हुए बोला "ज़्यादा भी अच्छी नहीं होती भाई, नया नया शौक़ है... थोड़ा संभल के"। दूसरी सिगरेट जलाकर राघव कुछ सोचता हुआ, सामने से आते संगीत की धुन में खो गया। 

अगली सुबह राघव ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था जब डेविड चाय बनाकर किचन से बाहर निकला। इससे पहले कि डेविड लैट्रीन में घुसता, राघव ने उसे रोकते हुए कहा "भई तेरे दुकान वाले से शाम को बात करने चलते हैं, गारंटी मांग रहा है ना वो"

"भईया वो तो 50,000 रुपए ऊपर मांग रहा है, मुश्किल ही है... में कहां से..."

"कोई नी... मैं दे दूंगा, तू काम तो शुरू कर"

"भईया मैं...", एकदम से फूटकर रोते हुए डेविड बोला। डेविड की आंखों से आंसू बहने लगे। वो सिर पकड़ कर जहां खड़ा था वहीं ज़मीन पर बैठ गया, "नहीं नहीं नहीं भईया... मैं... नहीं भईया"

"अरे... चल बे... मारूंगा साले। रो क्यों रहा है। जब आ जाएंगे तब दे दियो, वरना पार्टनर बना लियो", डेविड को उठाकर गले लगाते हुए राघव ने कहा।

मंजीत चुपचाप करवट लिए सब सुन रहा था, पर उसे लगा अभी बीच में पड़ने से पूरे सीन का इमोशन मर जाएगा, तो उसने दुजी तरफ़ चेहरा करे सोने का नाटक जारी रखा।

    अंकल जी ने राघव कि एस॰बी॰आई॰ में नौकरी का सुनते ही मन बना लिया था, फिर भी थोड़ा इधर उधर टालम-टोल करते,  दुनिया बड़ी ख़राब है, पैट्रोल का दाम और पुराने गानों की बात ही और थी वगहरा वगहरा की गपशप लगा कर उन्होंने चाबी आख़िर इनके हवाले कर ही दी। डेविड ने इतने बरसों में काफ़ी डिटेल्ड पलैनिंग की हुई थी इस बात से मंजीत और राघव अनजान थे। ख़ैर... किचन, मैटेरियल, सप्लाई, मीटर, पर्मिशंस, डिजाइन, फर्नीचर और कलर... भाई ने सब कुछ सोच रखा था, बस बात आकर थम गई  कैफ़े  के नाम पर। एक बार को ये भी सोचा की सामने वाले पुराने ओनर के "सिप 2 सिप कॉफी"  को सीधा टक्कर देते हुए "लिप 2 लिप  कैफ़े " नाम रख लिया जाए, पर ये कई वजहों से ग़लत डिसीजन होगा राघव और मंजीत ने डेविड को समझाया। आख़िर में मंजीत के थियेटर बैकग्राउंड को नज़र में रखते हुए, ये काम उसके क्रिएटिव दिमाग़ पर छोड़ दिया गया।

    कुछ दिन बाद दुकान में फर्नीचर और एक सेकेंड-हैंड फ्रिज सेट करवा कर डेविड और मंजीत रात में फ़्लैट पर पहुंचे तब प्रॉपर्टी डीलर एक फ़ैमिली को लेकर फ़्लैट से बाहर ही निकल रहा था। अंदर राघव से पूछने पर पता चला कि वो कुछ नए लोगों को फ़्लैट दिखाने लाया था। क्यूंकि डेविड काफ़ी समय से यहां रह रहा था और अब उसने धंधा भी जमाना शुरू कर दिया था, तो मालिकाना हक़ हो जाने के डर से मकान-मालिक ने "किसी का भी एग्रीमेंट आगे ना बढ़ाने को बोला है। फ़्लैट खाली करना होगा"। किसी को अंदेशा ही नहीं था, अचानक ही ये बात कहां से निकल आई। अभी कल तक तो कैफ़े के नाम पर ही बहस छिड़ी हुई थी। पतझड़ आ गया था क्या? कुछ देर तीनों ने एक दूजे को देखा फिर राघव ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा "11 महीने हो गए भाई"।

    आज रिहर्सल काफ़ी ज़ोरों से हुई। मंजीत में एक आग सी थी, शायद आज बहुत समय बाद घर वापस जाने वाला था इसकी ख़ुशी थी। अपना सारा सामान वो साथ ही ले आया था, ताकि यहां से रिहर्सल ख़त्म कर के सीधा घर निकल सके। पर नहीं... पहले वो एक दोस्त के पास चला गया, फिर मंडी हाउस निकल गया। क़रीब 8 बजे मंडी हाउस से चाए पीकर उसने कैब बुक करी और अपने इयर-प्लग्स लगा कर चल पड़ा उत्तम नगर कि तरफ़। कैब में बैठे बैठे राघव और डेविड के चहरे रह-रहकर उसके आगे आ रहे थे। यू-ट्यूब, इंस्टा सब देख लिया पर हर कुछ डर में दिमाग़ परसों हुई बातों को फिर दोहराता रहा, फिर सोचता रहा कि बाक़ी दोनों कितने मुक़म्मल हैं और वो कितना अधूरा।

दरअसल परसों जब एकदम से फ़्लैट खाली करने की बात उठी तो मंजीत ने एकसाथ दूसरे फ़्लैट में शिफ़्ट होने का आइडिया दिया, तब राघव ने बताया कि घरवाले उसे रोके के लिए बुला रहे हैं, एक लड़की उन्होंने पक्की कर ली है। उसे स्टाफ़ क्वार्टर्स में फ़्लैट के लिए अप्लाई करना पड़ेगा, वो बोला कि "लोगों की ज़्यादा भी आदत नहीं डालनी चाहिए, बाद में तकलीफ़ होती है। 11 महीने ही बहुत हैं तुम कमीनों के साथ"। कुछ दिन वो अपने बैंक वाले दोस्तों के साथ टिक जाएगा। डेविड ने भी कहा कि वो तो कहीं भी किसी के पास भी रुक जाएगा... लक्ष्मी नगर में कमरों की कमी थोड़े ही है। कुछ सोचते हुए मंजीत ने भी हां में हां मिलाते हुए कहा कि "मेरे भी घरवाले काफ़ी टाइम से वापस बुला रहे हैं, तो मैं भी अब घर पे ही रहने का सोच रहा हूं। मेरा तो सब अपना है ही यहां"। ये कहकर सहमती से अपने अपने रास्ते जाने का फैसला लिया गया, इस वादे के साथ कि मिलते रहेंगे।

इतने में गाड़ी कुछ धीमी हुई, मंजीत उत्तम नगर आ पहुंचा था। "बस भईया यहीं रोक दो" मंजीत ने कैब वाले को एक गली पीछे ही रोकते हुए कहा। कैब से उतर कर, धीमे धीमे अपने बैग्स घसीटता हुआ मंजीत अपने घर के सामने पहुंचा और दरवाज़ा खटखटाते ही उल्टा मुड़ गया,  दौड़कर वापस गली से दूर जाने लगा। उसको फिर वही दम घुटने का एहसास होने लगा। वो सारी बातें एकदम से सामने आने लगीं। उसे लगा जैसे उसे कोई तालाब में नीचे खेंच रहा है।

उस ही रात क़रीब 11 बजे मंजीत अपने पुल पर खड़ा था। कुछ देर ऊपर देखने के बाद उसने नीचे सड़क की ओर देखा तो उसे एहसास हुआ कि कोई नहीं आने वाला। आज तो उसके दोस्त उसे बिल्कुल भी नहीं ढूंढ रहे। लक्ष्मी नगर के इस फ़िज़ूल पुल पर वो हमेशा की तरह बिल्कुल अकेला है।

कुछ देर बाद अचानक से कुछ ख़याल आने पर मंजीत ने अपने तीनों बैग्स उठाए और पुल से निकल चला। सीधा पहुंचा डेविड के नए कैफ़े।

शटर खुला था, अंदर लाइट भी जल रही थी। दरवाज़े पर आकर मंजीत ने एक नपी-तुली दस्तक दी तो राघव दरवाज़े पर आया। ये देखकर मंजीत बहुत ज़ोर से मुस्कुराया। राघव ने अंदर आवाज़ लगाते हुए कहा "आइए आइए, अरे डेविड... देखो कौन आया है"। अंदर आकर मंजीत कुर्सी पर बैठा, तभी डेविड किचन से चाय लेकर आ गया। वो मंजीत कि ओर कप बढ़ाते हुए बोला "देखो मंजू भईया, चाय बनाई और तुम आ गए। समझ रहे हो, कित्ता प्यार है हममें"। सुनते ही मंजीत ने डेविड को एक तड़कती भड़कती गाली बकी, जिसपर तीनों हसकर बातों में लग गए।


{ढाक; बुटेआ मोनोस्पर्मा या लाल फूल वाला पेड़}

 

अनन्त

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