जमनाजी से मुड़ते ही

जमनाजी से मुड़ते ही अनन्त गौड़ दो नंबर गेट के पास वाले फुट-ओवर ब्रिज पर खड़ा मंजीत आसमान की ओर देख रहा था। पूर्णिमा का पूरा खिला हुआ चांद, जिसकी दूधिया रौशनी चारों तरफ़ हर बिल्डिंग , हर दुकान पर बिखरी जा रही थी। कुछ देर ऊपर देखने के बाद उसने नीचे सड़क की ओर देखा। रात के डेढ़ बजे थे, सो कोई इक्का-दुक्का गाड़ी ही गुज़रती नज़र में आती और दूर कहीं किसी बेघर शराबी के गाने की आवाज़ कानों में। वो पलटा तो उसने देखा की एक कुत्ता उसके बैग पर पेशाब कर रहा है। कुत्ते को लताड़ते हुए मंजीत को एहसास हुआ की वो एक नंबर का झंडू है। कोई नहीं आने वाला, और अगर गलती से उसके दोस्त उसे ढूंढ भी रहें हों, तो भी लक्ष्मी नगर के इस फ़िज़ूल पुल पर तो कोई नहीं आने वाला। आजतक तो कोई नहीं आया। कुछ देर और इंतज़ार कर, फिर हारकर, मंजीत ने अपने दोनों बैग्स उठाए और वापस अपने फ़्लैट की तरफ़ बढ़ गया। लक्ष्मी नगर, स्कूल ब्लॉक। कचरे के ढेरों से बचते बचाते, अपने बैग्स घसीटता हुआ, मंजीत फ़्लैट पर पहुंचा और दरवाज़े पर एक नपी तुली सी दस्तक दी। इतनी की किसी को सुनाई ना दे। लेकिन बिना ...